पानी-पूरी के कोरोना सफर की तलाश

कुछ एक आते-जाते लोगों के चेहरे पर लगे मास्क को अगर नज़रंदाज़ कर दिया जाए, तो इस पानी-पूरी की रेहड़ी पर शायद अब सब पहले-सा हो गया है। मेरा बेझिझक गोलगप्पे की पूरी प्लेट खाने के बाद भी खाली पापड़ी का मांगना या उस एक टिक्की की दरख्वास्त; जो गोलगप्पे वाले दीदी के साथ और अपने शहर के अपनेपन का अहसास कराती है।

मैं यूं तो अक्सर गोलगप्पों के लिए यहां आती हूं पर उस दिन एक ख़ास काम से आई थी। इस उम्मीद में कि गोलगप्पों के माध्यम से कोरोनाकाल में रेहड़ी-पटरी वालों के संघर्ष और उम्मीद की एक कहानी तलाश सकूं।

दिन के हाल-चाल के बाद और सारी बात बताने के बाद मैंने अपने सवालों का सिलसिला शुरू किया।

प्र० आपका कोरोना काल में अनुभव कैसा रहा?
उ० …” अच्छा तो नहीं था।”

प्र० आप लॉकडाउन में क्या करते थे?
उ० “सोचते रहते थे।”

उन्होंने जवाब तो दिया पर मुझे मिला नहीं। उनका कम शब्दों में दिया, शांत और लगभाग अनकहा जवाब मेरी समझ से कुछ परे था। लेकिन, फिर धीरे-धीरे उनका जवाब और उसके साथ आती चुपी मानो खुद ही खुद में उनकी बात बयां करने लगी।

मैं कुछ नए जवाब की उम्मीद में उन से पूछती, “आपको लॉकडाउन के वक्त कैसा लगा; लॉकडाउन में आपकी दिनचर्या क्या थी; इत्यादि?” मध्यम वर्ग और अधिक आय के अधिकतम लोगों के लिए लॉकडॉउन का शुरुआती दौर, कम से कम कुछ शुरुआती दिन, आराम भरे थे। पर शायद रोज़ पैसा कमा कर खाने वालों के लिए ये चिंता से कम कुछ भी नहीं था। कोरोनाकाल में प्रवासी मजदूरों की कहानियां तो बहुत सुनी और पढ़ी थीं, पर इस बात की अनुभूति उस शाम को हुई।

मेरे बार-बार पूछने पर, ग्राहकों के बर्गर बनाते हुए दीदी बेहद सादगी से कहती, “बस बैठे-बैठे सोचते रहते थे।… हां रामायण पूरा परिवार साथ देखता था। खबरें के सहारे कुछ वक्त निकल जाता था । सोचते रहते थे कि कब ये लॉकडाउन खुले पर फिर खबरों में लगातार बढ़ते कोरोना मामलों के बारे में सुन कर डर भी लगता था। घर भी नहीं जा सकते थे, जो जा रहे थे (~प्रवासी मज़दूरों के सामने आ रहे विडियो), उन्हें भी पुलिस वापिस भेज रही थी।”

बात आगे बढ़ाते हुए जब मैंने उनके बच्चों के बारे में पूछा, तो दीदी ने हंसते हुए जवाब दिया कि बाहर खेलने वाले बच्चों को पूरा दिन घर पर बैठना कैसे अच्छा लगता। इत्तेफ़ाक से बड़े बेटे की परीक्षाएं लॉकडाउन से कुछ दिन पहले ही खत्म हुई थी परंतु बेटी तो अभी पहली में हुई थी। यूं तो फोन पर आई वीडियो और रेहड़ी के पास वाली दुकान की मालकिन के माध्यम से वो कुछ कुछ पढ़ती रहती है परंतु पिछले 10 माह की ट्यूशन फीस कैसे भरेंगे, यह चिंता अब भी उन्हें सताती रहती है।

पर शायद जिंदगी अपने आप में एक विरोधाभास भी है। जहां एक ओर थी पैर पसार रही बेरोजगारी और लगातार लोगों में बढ़ रहा तनाव; दूसरी ही ओर इस निराशा के माहौल में कोरोना ने दुनिया को ऐसी कहानियां भी दी जो लोगों की हिम्मत और अब भी कहीं जिंदा इंसानियत की दास्तां बयां कर गई।

देशभर से आई सकारात्मक कहानियों की तरह, दीदी के अनुभव में भी इंसानियत की झलक, इन्हें उम्मीद और हौंसला देती रही। सरकार की तरफ से दो बार मिले लगभग 3-4 किलो राशन के इलावा, रेहड़ी के पास कपड़ों की दुकान करने वाले परिवार ने भी उनकी राशन देकर पूरी मदद की।

अनलॉक प्रक्रिया के दौरान पूरे 72 दिनों बाद खुली रेहड़ी पर कोरोनावायरस के डर के चलते कम ही लोग आते। किन्हीं दिनों में तो केवल ₹50 – ₹60 की बिक्री हुई। सुनसान सड़क ज़िंदगी की मायूसी का प्रतीक थी। लेकिन इस बीच कुछ ऐसे भी लोग थे, जो केवल इसलिए रेहड़ी पर आते ताकि इनका रोज़गार चलता रहे।

धीरे धीरे मसले कुछ हल होने लगे पर  “चार महीने का किराया” अब भी बाकी था। परिवार के लिए सबसे बड़ी राहत तब आई जब मकानमालिक ने लॉकडाउन का पूरा किराया माफ कर दिया। उस दिन को याद करते हुए आज भी दंपति के चेहरे पर आभार का भाव साफ छलकता है।

“हां! उस दिन लगा था अब भी लोगों में कुछ इंसानियत जिंदा है।”

आपदा को कोई बुलाना तो नहीं चाहता पर न जाने कब मुझे पर, आप पर या इस कोरोना के ढीठ मेहमान की तरह पूरी दुनिया पर आ बरपे। परंतु जब तक हम में एक दूसरे की मदद करने का हौंसला है तो जिंदगी में हर मुश्किल से लड़ने का हौंसला भी मुमकिन है।