बेफिजूल ही बड़े हो रहे हैं

अपने घर पर सब लाडले होते हैं
पहली बार दाल सबकी जलती है

चाहत वाली नौकरी घर छुड़ाती है
मनचाही पगार अरसे बाद मिलती है

पथरों के शहर में आए पहले नहीं हो
गम संग मुस्कुराने वाले आखरी नहीं हो

मां की याद यहां सबको सताती है
पिता के हौंसले ख्वाब सजाते हैं

सब बड़े ख्वाब छोटों पर लुटाते हैं
छोटे बेफिजूल ही बड़े हो जाते हैं

कहते हैं पहली नौकरी बहुत सिखाती है
पर तब 5 की यारी, एक बड़ी बहन थी

पहली जितनी लाड में गुजरी
इस बार सबकी भरपाई है

अपनों की कमी इस साल खली है
समझने वाले दूर पर ताकत वही हैं

“After 23 years of pampering, one finally for unlearning.”

PS – Learn to suffice for yourself, it will take you a long way or life will teach you in its own way. बात सही गलत की कभी थी ही नहीं, its only about people who get you and also the ones you do.

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